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पूर्णियाँ (बिहार) निवासी छन्द-शिरोमणि कवि बाबा बैद्यनाथ झा को मिला-' लाल बहादुर शास्त्री साहित्य रत्न, 2022-23' तथा 'साहित्य महोत्सव स्वर्ण रचना सम्मान, 2023'
हिन्दी साहित्य का चर्चित समूह "मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच (मगसम) की ओर से उसके राष्ट्रीय संयोजक श्री सुधीर सिंह सुधाकर जी (दिल्ली) ने दिनांक 09 सितम्बर,2023 को " स्काउट भवन, जिला स्कूल, पूर्णियाँ (बिहार) में चर्चित वयोवृद्ध कवि प्रो0 देवनारायण पासवान देव जी की अध्यक्षता में "एक शाम माँ के नाम" शीर्षक पर आधारित भव्य कविगोष्ठी में पूर्णियाँ निवासी प्रख्यात छन्द-मर्मज्ञ, गीतकार एवं ग़ज़लकार बाबा बैद्यनाथ झा (पूर्णियाँ, बिहार) को समूह का सर्वोच्च "लाल बहादुर शास्त्री साहित्य रत्न सम्मान, 2022-23" तथा माँ पर आधारित रचना लेखन के लिए आयोजित प्रतियोगिता में विश्व के 49890 रचनाकारों की रचनाओं में 5वाँ स्थान प्राप्त करने पर इन्हें "साहित्य महोत्सव स्वर्ण रचना सम्मान, 2023" से रेशमी चादर, स्मृति चिह्न देकर सम्मानित कर गौरवान्वित किया है।
इस अवसर पर उनके अतिरिक्त चर्चित कवयित्री मंजुला उपाध्याय मंजुल, कवि गोपाल चन्द्र घोष मंगलम, गंगेश पाठक, कैलाश बिहारी चौधरी, डाॅ0 किशोर कुमार यादव, हरे कृष्ण प्रकाश, अंजू दास गीतांजलि, दीपिका आनन्द, मनोज राय आदि ने माँ पर आधारित अपनी रचनाओं का पाठ किया। इस अवसर पर "मगसम" की ओर से ही मंगलम जी को "वरीय श्रेष्ठ रचनाकार-सम्मान " तथा अन्य सभी कलमकारो को कार्यक्रम सहभागिता-सम्मान प्रदान कर सम्मानित किया गया।
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व्यापक समाज में कविता की स्वीकार्यता लगभग नहीं के बराबर है !: सिद्धेश्वर
पटना ! 26/08 /23! कविता की बारीकियों को समझने के लिए, ऑनलाइन या ऑफलाइन कविता की पाठशाला की सख्त जरूरत है l हमने इसी उद्देश्य से ऑनलाइन इस पाठशाला को चला रखा है l हमें खुशी है कि इस पाठशाला से नए कवि कुछ सीख रहे हैं और पहले से बेहतर सृजन कर रहे हैं l लघुकथा से कविता सृजन की ओर मुड़ गए हैँ और पहले से बेहतर लिख रहे हैं l विद्वान होना अलग बात है और साहित्यकार होना अलग l एक विद्वान जरूरी नहीं कि एक साहित्यकार भी हो l ठीक उसी प्रकार एक साहित्यकार जरूरी नहीं कि विद्वान भी हो l एक विद्वान साहित्यकार भी हो, तो अति उत्तम l किंतु विद्वान होना, साहित्यकार होने की पहचान नहीं होना चाहिए l कारण कई बार साहित्यकार इतनी अच्छी रचनाओं का सृजन कर लेता है कि व्याकरण संबंधी दोष के बावजूद उसे संशोधित कर प्रकाशित करना अनिवार्य लगता है l दूसरी तरफ विद्वान साहित्यकार की कई रचनाएं ऐसी होती है, कि व्याकरण या हिंदी का दोष नहीं रहने के बावजूद, वह रचना प्रभावकारी नहीं होती, अस्तरीय होती है l जिनका प्रकाशन कोई खास मायने नहीं रखता l
शायद इसीलिए आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वान साहित्यकार एक सफल संपादक भी थे और वे नए पुराने रचनाकारों की वैसी रचनाओं को संशोधित कर प्रकाशित करते थे, जो रचनात्मक स्तर पर उच्च कोटि की होती थी l वे रचनाओं पर मेहनत करते थे, उसका संशोधन करते थे l और कई बार विद्वान रचनाकारों की अस्तरीय रचनाओं को स्थान नहीं देते थे l निष्पक्षता निर्भीकता और श्रेष्ठ संपादन की यह पहली शर्त होती है l लेकिन आज के संपादक ठीक इसके उल्टे विचार के होते हैं l उन्हें रेडीमेड सामग्री चाहिए जो सीधे पेस्ट कर सके l ऐसे में कई बार अच्छी रचनाएं पाठकों तक नहीं पहुंच पाती l
अवसर साहित्य पाठशाला के 22 वें एपिसोड में, पूरे देश में पहली बार इस तरह का साहित्यिक पाठशाला का ऑनलाइन आयोजन करने वाले संयोजक सिद्धेश्वर ने, संचालन के क्रम में ऑनलाइन उपरोक्त उद्गार व्यक्त किया!
उन्होंने नए साहित्यकारों के संदर्भ में कहा क़ि पढ़ने की प्रवृत्ति भले ही पहले कम हो गई हो, लेकिन कविताएं खूब लिखी जा रही है ,कविता प्रकाशित भी खूब हो रही हैऔर कविता की पुस्तकें भी खूब आ रही है l लेकिन यह सारी सक्रियता एक तरफा है l कवि बिरादरी तो सक्रिय हैं, लेकिन व्यापक समाज में कविता की स्वीकार्यता लगभग नहीं के बराबर है l थोड़ी बहुत स्वीकार्यता है भी तो सिर्फ गीत और गजल जैसी छँद वाली कविताओं के प्रति l कुछ ऐसी ही स्थित लघुकथा और कहानी के प्रति भी देखी जा रही है l इसलिए जरूरी है कि आज के साहित्यकार साहित्य को गंभीरता से ले l सोशल मीडिया में भी कोई रचना डाले तो बहुत सोच समझकर और बेहतरीन रचनाएं l और बड़ी-बड़ी गोष्ठी में जाने के अपेक्षा छोटी-छोटी गोष्ठीयों में समय व्यय करें l खूब पढ़ने में समय व्यतीत करें, तब लिखें l तभी रचनाओं का स्तर में सुधार होगा और साहित्यकारों का कद भी बढ़ेगा l
विजयाकुमारी मौर्य ने कहा कि - बात सही कहा आपने सिद्धेश्वर जी। आजकल घर-घर कवि हैं,जो अपने अन्दर भाव उभरे और लिख डाली.. चाहे जैसी भी हो, नियम कानून से परे...हालांकि ऐसे कवियों को मार्गदर्शन की आवश्यकता है। यह मैं भी नहीं कहती कि मैं कविता में पूर्ण हूँ। सुधा पांडे ने कहा-"आलोचना से ही प्रखरता आती हैl" जबकि नमिता सिंह ने कहा -" अच्छा रचनाकार बनने के लिए आलोचनाओं को सकारात्मकता से से लेना अत्यंत आवश्यक है l" माधवी जैन ने कहा क़ि छन्दमुक्त कविता में कथ्य के साथ लयात्मकता नहीं हो तो वह सपाट बयानी है ,कविता नहीं lअखोरी चंद्रशेखर ने कहा -"छन्दमुक्त कविता में कथ्य के साथ लयात्मकता भी होनी चाहिए ।" हरि नारायण हरि ने कहा कि -आपका काम ही साहित्य-सृजन करना और साहित्यकारों को मंच प्रदान करना है। साहित्य साधना है। आज के साहित्यकार साधना करना नहीं चाहते और इच्छा रखते हैं कि एक-दो कविता लिखकर महान कहलायें!
इनके अतिरिक्त हरि नारायण हरि , पंकज करण,सुधा पांडेय पुष्प रंजन,इंदु उपाध्याय,माधवी जैन, संतोष मालवीय, नमिता सिंह, इंदू उपाध्याय, निर्मल कुमार दे,माधुरी जैन,डॉ गोरख प्रसाद मस्ताना, अंकेश कुमार,अंजू श्रीवास्तव निगम,अखोरी चंद्रशेखर,अनिरुद्ध झा दिवाकर, संजय श्रीवास्तव, पूनम अनूप शर्मा, , विजयाकुमारी मौर्य,आदि ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज की और चर्चा में भाग लिया!
[] प्रस्तुति :,ऋचा वर्मा ( सचिन )एवं सिद्धेश्वर/ अध्यक्ष भारतीय युवा साहित्यकार परिषद, पटना!
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'साहित्यिक सम्मान समारोह' साहित्यिक कम,सरकारी अधिक लगता है : सिद्धेश्वर
पटना : 07/08/2023 l साहित्यिक समारोह , गैर सरकारी हो या सरकारी, लेखकों पत्रकारों और श्रोताओं के बीच में ही सुशोभित होता है l सिर्फ पुरस्कार पाने वाले लेखकों, उनके परिवार के सदस्यों, विधायको, मंत्रियों के बीच गोपनीय रूप से बिल्कुल नहीं l आम लेखकों और श्रोताओं के अभाव में ऐसा 'साहित्यिक सम्मान समारोह' साहित्यिक कम, सरकारी अधिक लगता है l यह साहित्यकारों का सम्मान है या अपमान ? क्योंकि यहां पर बात साहित्यकारों के स्वाभिमान की है l
भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में फेसबुक के अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका के पेज पर कवि, कथाकार सिद्धेश्वर ने ऑनलाइन 'तेरे मेरे दिल की बात' एपिसोड ( 30 ) में उपरोक्त उद्गार व्यक्त किया l उनकी यह चर्चा साहित्यिक,सांस्कृतिक एवं सामाजिक संदर्भों से जुड़ी हुई होती है l एक घंटे के इस लाइव एपिसोड के भाग :30 में " साहित्यिक समारोह बन गया सरकारी समारोह " के संदर्भ में उन्होंने विस्तार से आगे कहा कि -
जो साहित्यकार अपने जीवन काल में आर्थिक अभाव के कारण एक पुस्तक भी प्रकाशित नहीं कर पाता , और कोई छोटा-मोटा सरकारी पुरस्कार भी उसे प्राप्त नहीं होता तो ऐसे में उसके मान -सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा कौन करेगा ? उसके सामने आर्थिक रुप से संपन्न साहित्यकारों को और कई बार सम्मानित हुए साहित्यकारों को अच्छे-अच्छे पुरस्कार और मान सम्मान सब कुछ मिल जाता है ! यह सब कुछ देख कर अधिकांश साहित्यकार की आत्मा को पीड़ा नहीं पहुंचती है क्या ? "
" हालांकि सच यह भी है कि जो सच्चा साहित्य साधक होता है , उसे पीड़ा पहुंचती भी है तो वह उसे भुला देता है l वह अपने साहित्य सृजन कर्म में लगातार जुटा रहता है, कलम का मजदूर बनकर, कलम का सिपाही बनकर l एक सच्चा मजदूर, फसल की चिंता में, अपना श्रम कभी कम नहीं करता, एक सच्चा सिपाही , अपने दुश्मनों को देखकर, कभी हार नहीं मानता, कभी पीछे नहीं हटता l यदि जीत और हार ही हमारी किस्मत है , तो कर्म हमारा धर्म है l और सच्चा साहित्यकार हो या सेवक, किसान हो या मजदूर, अपना धर्म, क्या कभी छोड़ सकता है ? "
सिद्धेश्वर के व्यक्त किए गए विचार पर ऋचा वर्मा ने कहा - " किसी ने कहा है साहित्य, रोटी कमाना तो नहीं पर रोटी खाना तो जरूर सिखाता है ।यह हमें जीने की तमीज सिखाता है। इस तरह साहित्यकारों का योगदान समाज के निर्माण में बहुत ही प्रमुख होता है। साहित्यकार जो अपना तन मन धन अर्पित कर सेवा में लगे रहते हैं उन्हें पुरस्कृत किया जाना हर साहित्य प्रेमी के लिए गौरव के क्षण होते हैं हर साहित्य प्रेमी उन क्षणों का साक्षी बनना चाहता है। अब अगर ऐसे साहित्य प्रेमी जो एक पत्रकार की भूमिका में साहित्य पुरस्कार वितरण पलों को अपने कैमरे में कैद कर और पुरस्कृत साहित्यकारों के विचार आम पाठकों तक लाना चाहते हैं अगर उन्हें सरकार द्वारा आयोजित समारोह में प्रवेश तक नहीं मिलता है तो फिर आम जनता उन पलों से परिचित कैसे हो पाएगी। इसलिए समाज में साहित्य प्रचार -प्रसार के लिए यह आवश्यक है साहित्य संबंधी किसी भी गतिविधि में आम लोगों की भी सहभागिता हो, जिससे लोग निकट साहित्य को देख सकें,सुन सकें और समझ सकें।
लखनऊ से विजया कुमार मौर्य ने कहा कि -"साहित्य को समृद्ध बनाने और संस्कृति को सुदृढ करने की दिशा में प्रत्येक जनपद जिला भाषा अधिकारी की महत्व भूमिका रहती है।
दूसरी ओर कुछ सरकारी आयोजनों के प्रबन्धन को ठेकेदारी अथवा आउटसोर्स पद्धति पर भी देने का प्रयास होने लगा है। ऐसी परम्परा को साहित्यकारों के हित में स्वस्थ परंपरा नहीं माना जा सकता।
कई जिलों में मासिक अथवा द्विमासिक गोष्ठियाँ भी होती हैं इसी प्रकार प्रदेश के अन्य जिलों की साहित्यिक गतिविधियां भी कवियों-लेखकों की प्रेरणा एवं प्रस्तुति का माध्यम समय-समय पर बनता रहता है।
ऐसे में साहित्यकारों के अलग अलग मत हैं। "
रमेश चंद्र मस्ताना कहते हैं कि वर्ष 2019 के साहित्यिक परिदृश्य पर यदि विहंगम दृष्टिपात किया जाय तो कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां भी सामने आयी हैं।
🔷 इंदु उपाध्याय ने कहा कि -मेरे विचार से साहित्य हमारा भाव है जो समाज का आईना है। जो समाज की कुरीतियों से रूबरू कराता है ।जिससे उसको दूर करने में सहायता मिलती है। यह एक ऐसा एहसास है जो लहू से सींचा जाता है और तब पन्नों पर उतरता है। एक तरह से हमारे जिगर का टुकड़ा है, हमारी संतान की तरह है। इसे राजनीति से दूर ही रखना चाहिए वरना इसकी छवि धूमिल हो सकती है ।साहित्य और राजनीति का कोई मिल नहीं ।जिसे साहित्य से कोई मतलब नहीं उसे, उसके साथ मंच साझा करना मुझे समझ नहीं आ रहा है । मुझे तो सही नहीं लग रहा है। साहित्य प्रेमियों के लिए साहित्य उनका जीवन है ।साहित्य को जीवंत रखने के लिए उसे राजनीति से दूर रखना होगा, इसके लिए स्वतंत्र मंच चाहिए जहां वह अपने विचारों की अभिव्यक्ति खुलकर कर सके और साहित्य को पोषित कर सके जिसे साहित्य का विस्तार हो। "
इनके अतिरिक्त रजनी श्रीवास्तव अंतरा ",विजय कुमारी मौर्य, एकलव्य केसरी, अपूर्व कुमार ,सुधा पांडे, ,राजेंद्र राज,सपना चंद्रा, संतोष मालवीय, प्रियंका श्रीवास्तव शुभ्र,चैतन्य किरण, शैलेंद्र सिंह, संतोष मालवीय,सुनील कुमार उपाध्याय,नीलम श्रीवास्तव आदि विचारकों ने भी अपने विचार रखे l
♦️🔷 प्रस्तुति : ऋचा वर्मा (सचिव)/ सिद्धेश्वर ( अध्यक्ष ) भारतीय युवा साहित्यकार परिषद
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सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने के लिए आंचलिक कहानियों का सृजन जरूरी है! : रश्मि लहर
पटना : 08/ 07?23 l ओपेरा हाउस औऱ ठौर ठिकाना जैसी कथा कृति एवं उपन्यास के माध्यम से, कथा जगत में अपनी अलग पहचान बनाने में सक्षम अशोक प्रजापति अपनी मौलिक कथा शैली के कारण, आज भी उतने ही सक्रिय है जितने दो दशक पहले थे l उनकी सृजनात्मकता में शब्दों की कलाबाजी होते हुए भी, भाषा की वह सहजता है, जो गिने-चुने कथाकारों की लेखनी में दिख पड़ती है lअनोखे दृश्य एवं प्रभावपूर्ण संवाद से आरंभ उनकी कहानियां, पाठकों को आगे पढ़ने के लिए विवश कर देती हैl रोजमर्रा की जिंदगी से उठाए गए कथानक को बहुत ही खूबसूरती के साथ कहानी की परिदृश्य से जोड़ देते हैं, जिसके कारण पाठक आगे और आगे पढ़ता चला जाता है lइन कहानियों के संवाद से ही आप समझ सकते हैं कि अशोक प्रजापति अपनी अनुपम कथा शैली के कारण, कथा जगत में दमदार उपस्थिति दर्ज करते हैं!
भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में गूगल मीट के माध्यम से फेसबुक के अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका के पेज पर, हेलो फेसबुक कथा सम्मेलन का संचालन करते हुए संयोजक सिद्धेश्वर ने उपरोक्त उद्गार व्यक्त किया l
लोकप्रिय कथाकार अशोक प्रजापति की कहानी संग्रह पर समीक्षात्मक टिप्पणी अपनी डायरी में प्रस्तुत करते हुए सिद्धेश्वर ने विस्तार से कहा कि " कहानी स्वयं के लिए ना लिखकर पाठक के लिए लिखी जानी चाहिए साथ ही उसे समकालीन समाज के चरित्रों का प्रतिनिधित्व करने वाला भी होना चाहिए l कुछ ऐसी ही बात हमें नवीन कथा कृति नीला चांद और पीले तारे " की कहानियों में भी देखने को मिलती है!
मुख्य अतिथि वरिष्ठ कथाकार अशोक प्रजापति ने कहा कि समकालीन कहानी को आम पाठकों से जोड़ने में सेतु का काम कर रहे हैं मित्र सिद्धेश्वर जी l आंचलिक कहानी के प्रति क्यों उदासीन है आज के कथाकार जैसे ज्वलंत विषय को उठाकर उन्होंने रचनात्मक सक्रियता का परिचय दिया है lउन्होंने अपनी एक कहानी का पाठ भी किया!
पूरे कथा सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए लखनऊ की युवा लेखिका रश्मि लहर ने कहा कि - " कहानी गद्य साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा है, जो जीवन के किसी विशेष पक्ष का मार्मिक, भावात्मक एवं कलात्मक वर्णन करती है। हमें ज्ञात है कि कहानी हिन्दी गद्य की वह विधा है जिसमें लेखक किसी घटना, पात्र या समस्या का क्रमबद्ध ब्योरा देता है जिसे पढ़कर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न होता है। मुंशी प्रेमचंद ने कहीं लिखा था कि- " कहानी वह ध्रुपद की तान है जिसमें गायक महफ़िल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है। एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रातभर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता है!" कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, देश-काल, भाषा-शैली तथा उद्देश्य जैसे तत्वों से सजी -सॅंवरी कहानी पाठकों/श्रोताओं को बहुत जल्द प्रभावित कर लेती है। कहानी का इतिहास तो सदियों पुराना है। विशेष बात यह है कि हिन्दी साहित्य की प्रमुख कथात्मक विधा के रूप में कहानी आज भी उतने ही सम्मान के साथ साहित्यिक जगत में अपनी जगह बनाए हुए है। यदि आंचलिक कहानी की बात करें तो फणीश्वरनाथ रेणु का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। अंचल किसी सुनिश्चित भूभाग को कहते हैं , इसमें इक जुड़ने से इसका अर्थ अंचल से संबंधित हो जाता है। हम कह सकते हैं कि किसी अंचल या निश्चित भू-भाग के निवासियों का रहन-सहन, वेशभूषा, रीति-रिवाज तथा लोक-संस्कृति को जिस कथा में दर्शाया जाता है, उसे आंचलिक कथा कहते हैं। ऐसी कथाओं में आंचलिक जीवन की धुन, लय, ताल, सुर, सुंदरता तथा कुरुपता को शब्दों में बाॅंधने का सफल प्रयास किया जाता है।
आंचलिक कहानीकारों में प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, नागार्जुन, देवेन्द्र सत्यार्थी आदि लेखकों का नाम लोकप्रिय है। जनवादी चेतना को जगाते हुए कहानीकार बड़ी निपुणता से पाठकों का अंर्तमन छू पाने में सफल हुए हैं। आज की चर्चा का विषय बहुत उपयोगी लगा। आजकल आंचलिक कहानियाॅं बहुत कम लिखी जा रही हैं, जबकि अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने के लिए ऐसी कहानियों की आवश्यकता है। आज 'सिद्धेश्वर' जी ने 'फणीश्वरनाथ रेणु' को याद करते हुए अपने वक्तव्य के माध्यम से मगही, भोजपुरी, अवधी भाषा के साहित्यकारों की कमी तथा उनको राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा न मिल पाने की व्यथा जाहिर की साथ ही 'पुस्तकनामा' के अंतर्गत 'अशोक प्रजापति' की कहानी की पुस्तक 'नीला चाॅंद और पीले तारे' पर संक्षिप्त चर्चा की, जिसके माध्यम से यह ज्ञात हुआ कि 'अशोक' जी के साहित्य में लोक-संस्कृति को दर्शाने वाले विषय तथा देशज बोलियों की प्रमुखता रहती है।
यह भी प्रासंगिक रहा कि संपादकों की बेरुखी तथा भूमण्डलीयकरण के कारण भी आंचलिक कहानीकारों का रुझान कम हो रहा है।
इस हेलो फेसबुक कथा सम्मेलन में ऑनलाइन अपनी कहानियां पढ़ने वाले कथाकारों में क्रमशः अशोक प्रजापति, रश्मि लहर, ऋचा वर्मा, अलका वर्मा, सपना चन्द्रा, श्री अनुज प्रभात , रजनी श्रीवास्तव अनंता , नलिनी श्रीवास्तव, इरा जौहरी, इंदु उपाध्याय, वंदना भंसाली तथा मंजू सक्सेना जैसी साहित्यिकारों ने विभिन्न विषयों पर अपनी लेखनी/विचारों को सशक्त रूप से प्रस्तुत किया तथा पटल को समृद्ध किया। रचनाओं में संप्रेषणीयता, सटीकता, कसावट, सामाजिक विषमता, आंचलिकता का पुट रहा तथा रचनाएं सार्थक उद्देश्य दे पाने में सफल रहीं। सामाजिक चेतना लाने के लिए ऐसी गोष्ठियों की आज के समय में बहुत आवश्यकता है। एक सफल आभासी आयोजन के लिए सिद्धेश्वर जी प्रशंसा के पात्र हैं।
इन कथाकारों के अतिरिक्त कहानी एवं कथा सृजन पर अपनी बेबाक टिप्पणी प्रस्तुत करने वाले में प्रमुख है निर्मल कुमार डे,सुहेल फारुकी,सुधा पांडे, भगवती प्रसाद,सुधीर,मिथिलेश दीक्षित, पुष्प रंजन, दुर्गेश मोहन, सुधा पांडे, ,राजेंद्र राज, संतोष मालवीय, चैतन्य किरण, शैलेंद्र सिंह,सुनील कुमार उपाध्याय,नीलम श्रीवास्तव आदि l
♦️🔷 प्रस्तुति : रश्मि लहर ( प्रांतीय सचिव ) / सिद्धेश्वर (अध्यक्ष) भारतीय युवा साहित्यकार परिषद )
नोट:- निःशुल्क रचना प्रकाशन या वीडियो साहित्य आजकल से प्रसारण हेतु साहित्य आजकल टीम को 7562026066 पर व्हाट्सएप कर संपर्क करें।
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